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John Baptist Hoffmann: धरती बाबा मिशनरी | आदिवासी समाज के मसीहा की अनसुनी कहानी

John Baptist Hoffmann: धरती बाबा मिशनरी | आदिवासी समाज के मसीहा की अनसुनी कहानी

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John Baptist Hoffmann एक ऐसे ईसाई मिशनरी थे जिन्होंने छोटा नागपुर के आदिवासी समाज के हक के लिए ब्रिटिश सरकार से टकराव लिया। जानिए उनकी प्रेरणादायक और दस्तावेज़ी जीवनी हिंदी में।

John Baptist Hoffmann: धरती आबा मिशनरी | आदिवासी समाज के मसीहा की अनसुनी कहानी

जंगल की मिट्टी में जन्मी एक मौन क्रांति

जब भारत की आत्मा पर अंग्रेज़ों की बेड़ियाँ कसती जा रही थीं, और जंगलों में रहने वाले आदिवासी अपने ही वजूद के लिए तरस रहे थे—जब उनकी ज़मीनें लूटी जा रही थीं, ज़मींदारों और महाजनों के शोषण का शिकार हो रहे थे, भाषा को ‘जंगली’ कहा जा रहा था, और संस्कृति को मिटाया जा रहा था—तब एक विदेशी पादरी ने उस दर्द को अपना बनाया। वह भारत का बेटा नहीं था, लेकिन इस धरती से उसका रिश्ता खून से भी गहरा था। उसने ना तलवार उठाई, ना सत्ता मांगी—बल्कि उसने कलम उठाई, आदिवासियों की आवाज़ सुनी, और उनके संघर्ष को अपना धर्म बना लिया।

वो नाम था जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन(John Baptist Hoffmann), जो आज भी आदिवासी हृदय की धड़कनों में गूंजता है। वह पादरी ही नहीं था — वह एक योद्धा था, जो इंसानियत की लड़ाई लड़ रहा था। जिसने जंगलों में जाकर न केवल प्रार्थना की, बल्कि आदिवासियों के आंसू पोंछे, उनकी ज़मीन बचाई, और उनकी संस्कृति को दुनिया के सामने सिर उठाकर खड़ा किया। यह कहानी है एक मूक क्रांति की —जो बिना खून बहाए, हज़ारों जीवनों को नई पहचान दे गई।

यीशु मसीह का जीवन एक ऐसा आदर्श था, जिसमें सेवा, दया, न्याय और प्रेम के लिए बिना शोर किए बलिदान दिए गए।जब हम जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन के जीवन को देखें, तो लगता है जैसे उन्होंने मसीह के इन्हीं गुणों को अपनी आत्मा में धारण कर लिया था।

जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन के जीवन को देखें, तो वो एक जीवित इंजील (गॉस्पेल) प्रतीत होते हैं। उनकी प्रत्येक सेवा, संघर्ष और चुप्पी में मसीह की आत्मा बोलती है।

तो आज के इस लेख में हम जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन (John Baptist Hoffmann) की कहानी को जानेंगे, आदिवासियों के प्रति उनका प्यार, आदिवासी समाज के अधिकारों की लड़ाई, और उनकी सुरक्षा के उनके कार्य को जानेंगे.

प्रारंभिक जीवन और भारत आगमन

21 जून 1857, जर्मनी के छोटे से कस्बे वर्ल्डिंग में एक ऐसा बालक जन्मा, जिसे शायद स्वयं भी अंदाज़ा नहीं था कि एक दिन वह हज़ारों मील दूर भारत की आदिवासी आत्मा का प्रहरी बनेगा। उसका नाम था — जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन(John Baptist Hoffmann). बचपन से ही उसमें एक अलग बेचैनी थी — सत्य जानने की, दुख को समझने की, और निर्बलों के लिए कुछ कर गुजरने की। यही बेचैनी उसे यीशु मसीह के उस मार्ग की ओर ले गई, जो सेवा, बलिदान और करुणा से होकर गुजरता है।

वह येशू समाज (Jesuits) में सम्मिलित हुआ — एक ऐसा ईसाई मिशन जो केवल धर्म नहीं, बल्कि शिक्षा, न्याय और पीड़ितों की मुक्ति को ही अपना सर्वोच्च लक्ष्य मानता है। वहाँ उसने गहराई से दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र और मानवविज्ञान का अध्ययन किया। पर उसकी शिक्षा का उद्देश्य केवल ज्ञान अर्जन नहीं था, बल्कि मानव आत्मा की पीड़ा को समझना और उसका समाधान खोजना था।

और फिर, वर्ष 1889 — वह निर्णायक क्षण आया जब उन्होंने अपने हृदय की पुकार को सुना और भारत की धरती पर कदम रखा। उन्होंने रांची (आज का झारखंड) में अपने मिशन की शुरुआत की, पर यह कोई साधारण मिशन नहीं था —यह था एक ऐसे समाज की पुकार का उत्तर, जो सदियों से अनसुना रह गया था।

छोटा नागपुर का सामाजिक परिदृश्य

जब हॉफमॅन ने पहली बार छोटा नागपुर की धरती पर कदम रखा, तो वहां की मिट्टी से एक अनकही कराह उठ रही थी। मुंडा, उरांव, खड़िया और संथाल — ये वे जनजातियाँ थीं जो पीढ़ियों से जंगल, पहाड़ और धरती के साथ एक आत्मीय रिश्ता जी रही थीं। इनका जीवन गीतों में था, खेतों की लय में था, और एक-दूसरे के सुख-दुख में गूंथा हुआ था।

लेकिन अब वह जीवन टूटा हुआ था। ब्रिटिश शासन की क्रूर ज़मींदारी व्यवस्था, छल-कपट से भरे महाजनों के कर्ज़, ज़मींदारों द्वारा उनकी जमीनें हड़पना और अंग्रेज़ों के बनाए कठोर कानूनों ने इन भोले लोगों की धरती छीन ली, और उनके आत्मसम्मान को पैरों तले रौंद दिया। वे चीखना चाहते थे, लेकिन उनकी भाषा न तो अदालत समझती थी, और न ही अफसरशाही।

उन्हें british शासन से पहले से ही “असभ्य”, “जंगली”, और “पिछड़ा” कहा गया —जबकि सच्चाई यह थी कि वे उस संस्कृति के वाहक थे जिसमें प्रकृति और मानवता दोनों को बराबर पूजा जाता है। छोटा नागपुर की वह हरी-भरी घाटी अब धीरे-धीरे दर्द और अन्याय की घाटी बनती जा रही थी। और यहीं से शुरू हुई हॉफमॅन की लड़ाई — एक ऐसी लड़ाई जो उन्होंने कलम, करुणा और कानून से लड़ी।

जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन की शुरुआती सेवा

जब हॉफमॅन 1889 में भारत आए, तो वे सीधे झारखंड के रांची क्षेत्र में भेजे गए। उस समय अधिकांश मिशनरी शहरों या बड़े संस्थानों में कार्यरत थे — लेकिन हॉफमॅन ने खुद से आग्रह किया कि उन्हें ग्रामीण, आदिवासी क्षेत्र में भेजा जाए।

एक सेवक का पहला कदम: भाषा नहीं आती थी, लेकिन दिल समझता था

जब जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन(John Baptist Hoffmann) ने झारखंड की भूमि पर कदम रखा, तो उनके पास ना स्थानीय भाषा का ज्ञान था, ना कोई बड़ा पद या ताकत। लेकिन उनके पास था यीशु मसीह का संवेदनशील हृदय। उन्होंने गांव के लोगों के बीच रहकर उनकी भाषा सीखी, उनके दुख-सुख सुने, और बच्चों के साथ बैठकर मिट्टी के आँगन में शिक्षा की शुरुआत की। उनकी पहली सेवा कोई बड़ा मिशन प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि एक टूटी हुई आत्मा को सम्मान देने का विनम्र प्रयास था। यही सरल शुरुआत आगे चलकर एक सामाजिक क्रांति में बदल गई।

हॉफमॅन गांव के चौपाल पर बैठ जाते,बच्चों को खेलते हुए देखते,किसानों के साथ खेत तक जाते,और धीरे-धीरे एक-एक शब्द मुंडारी में बोलना सीखते। वे भाषा को सीखने नहीं, समझने आए थे।और यही उनके सेवाकार्य की शुरुआत थी।

बच्चों से दोस्ती, माताओं से अपनापन

हॉफमॅन ने जल्दी समझ लिया कि यदि समाज को छूना है, तो शुरुआत बच्चों और महिलाओं से करनी होगी। वे बच्चों के साथ लोकगीत गाते,महिलाओं से उनकी कहानियाँ सुनते,और गांव की भूत-प्रेत, परंपरा, पूजा-पद्धति की बातें गौर से सुनते।उनकी सेवा ‘शिक्षा’ देने से पहले ‘सुनने’ की सेवा थी।

पहला स्कूल – जहाँ ब्लैकबोर्ड से ज़्यादा संवाद था

कुछ महीनों बाद, उन्होंने एक छोटा सा स्कूल खोला —लेकिन यह कोई आम मिशन स्कूल नहीं था।यहां मुंडारी में पढ़ाया जाता था,शिक्षक भी स्थानीय युवक थे,और बच्चों को पहले अपनी संस्कृति और बाद में bible पढ़ाई जाती थी।

हॉफमॅन मानते थे:”कोई भी बच्चा तब तक नहीं सीखेगा, जब तक उसकी आत्मा सुरक्षित न हो।”

गांव-गांव का दौरा – ज़मींदारी का सच समझना

शुरुआती सेवा में ही हॉफमॅन को पता चला कि:आदिवासी दिन-रात मेहनत करते हैं,फिर भी जमींदार उनसे बेगारी करवाते हैं,कर्ज़ में फंसा कर उनकी ज़मीनें हड़पी जाती हैं।उन्होंने गांव-गांव घूमकर सैकड़ों क़िस्से अपने डायरी में दर्ज किए।यह डायरी आगे चलकर उनकी सबसे बड़ी लड़ाई – CNT Act की नींव बनी।

धर्म का परिचय — प्रेम और सेवा के रूप में

हॉफमॅन ने धर्म को कभी ज़बरदस्ती नहीं थोपा। वे कहते थे:”मसीह का प्रेम तब तक मत बताओ,जब तक उनके पैरों के छाले न देख लो।” उनकी शुरुआती प्रार्थनाएँ गांव के किसी वृक्ष के नीचे होती थीं,जहां वे आदिवासियों के देवी-देवताओं का सम्मान करते हुए यीशु के प्रेम को एक सेवक की तरह प्रस्तुत करते।

John Baptist Hoffmann के सराहनीय कार्य

1. आदिवासियों की ज़मीन की रक्षा – CNT Act

झारखंड के आदिवासियों की पुश्तैनी ज़मीनें, अंग्रेज़ों की ज़मींदारी नीति और महाजनों की चालाकी से छीनी जा रही थीं। कानून आदिवासियों को अपराधी मानता था, उनकी ज़मीन को बेचने, गिरवी रखने या छीनने पर कोई नियंत्रण नहीं था।

उस समय John Baptist Hoffmann ने एक पहल की. उन्होंने मुंडा समुदाय के भीतर जाकर हर गाँव, हर केस का गहराई से अध्ययन किया। आदिवासियों से उनकी भाषा में बातचीत की, और उनके अनुभवों को लिपिबद्ध किया। उन्होंने 10 वर्षों तक न्यायालयों, अफसरों और मिशन से मिले संसाधनों से मिलकर दस्तावेज़ तैयार किए।

उनके इस पहल का परिणाम 1908 में “छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम” (Chotanagpur Tenancy Act – CNT Act) पारित हुआ। इसने आदिवासियों की ज़मीन को बाहरी लोगों को बेचने से रोका,ज़मींदारी के अन्याय से संरक्षित किया,और एक ऐतिहासिक कानूनी ढाल दी। और आज भी झारखंड में CNT Act आदिवासियों के भूमि अधिकार का सबसे बड़ा हथियार है — और इसकी नींव हॉफमॅन ने रखी थी।

2. Encyclopaedia Mundarica – संस्कृति का जीवित दस्तावेज़

जब पूरा औपनिवेशिक तंत्र आदिवासी समाज को “असभ्य”, “गंवार” कहकर मिटाने में जुटा था, तब हॉफमॅन ने मुंडा संस्कृति को दुनिया के सामने गर्व से खड़ा किया। उनके द्वारा संकलित: “Encyclopaedia Mundarica” —16 वॉल्यूम्स में फैली एक ऐतिहासिक रचना, जिसमें मुंडा जनजाति के सामाजिक ढांचे,पारंपरिक विवाह,गीत-संगीत,कृषि पद्धति,न्याय प्रणाली और धार्मिक मान्यताओं का दस्तावेज़ीकरण किया गया। यह कार्य आज भी समाजशास्त्रियों, मानवविज्ञानियों और इतिहासकारों के लिए अनमोल धरोहर है।

यह पहली बार था जब एक आदिवासी समाज को इस गहराई से सम्मान के साथ प्रस्तुत किया गया।

3. मातृभाषा आधारित शिक्षा और मिशन स्कूल

ब्रिटिश काल में शिक्षा की स्थिति य़ह थी कि, मिशन स्कूलों में शिक्षा का माध्यम केवल अंग्रेज़ी था। आदिवासी बच्चे अपनी भाषा में बोल भी नहीं सकते थे, उन्हें तुच्छ समझा जाता था।

उस समय हॉफमॅन(John Baptist Hoffmann) ने शिक्षा प्रणाली में बड़ा योगदान दिया. उन्होंने मुंडारी, खड़िया, उरांव जैसी भाषाओं में शिक्षा सामग्री तैयार करवाई। चर्च के ज़रिए शुरू हुए स्कूलों में मातृभाषा में पढ़ाई शुरू करवाई। आदिवासी बच्चों में आत्मविश्वास और गौरव पैदा किया।

उन्होंने बार-बार लिखा:“Language is not just a medium, it is the soul of a people.”

4. आदिवासियों के न्याय के लिए अदालती संघर्ष

British काल में य़ह हकीकत थी कि, अदालतों में आदिवासी सिर्फ़ दोषी समझे जाते थे — उनके पास कानूनी सलाह, दस्तावेज़ या भाषा का अधिकार तक नहीं था। तब हॉफमॅन ने बड़ी भूमिका निभाई, उन्होंने हज़ारों केसों में आदिवासी किसानों को मुफ्त सलाह, दस्तावेज़ और वकील उपलब्ध करवाए। उन्होंने मिशन को “कानूनी सहायता केंद्र” की तरह इस्तेमाल किया। कई बार खुद अदालत में खड़े होकर आदिवासियों का पक्ष रखा।

यह कार्य पूरी तरह से सरकार और ज़मींदारों के खिलाफ जाता था — लेकिन हॉफमॅन को आदिवासियों का भविष्य ज़्यादा प्रिय था।

धार्मिक सेवा के साथ सामाजिक सेवा का संतुलन

हॉफमॅन ने कभी धर्म को ज़बरदस्ती थोपा नहीं। उन्होंने आदिवासियों की संस्कृति, देवी-देवताओं और जीवनशैली का आदर किया। उन्होंने ईसाई धर्म को सेवा और शिक्षा के ज़रिए प्रस्तुत किया, न कि नियंत्रण के लिए। वे कहते थे:”The gospel is not a sword. It is a healing balm.”उनका दृष्टिकोण यह था कि ईश्वर वहीं होता है, जहाँ न्याय और प्रेम होता है — और यही उन्होंने आदिवासी समाज में जीवित किया।

ब्रिटिश अधिकारियों से टकराव

कई बार ब्रिटिश अफसर और बड़े ज़मींदार हॉफमॅन से खफा हो गए। उन पर आरोप लगाए गए कि वह “जनता को भड़का रहे हैं”, “प्रशासन की अवज्ञा कर रहे हैं”। लेकिन उन्होंने कभी पीछे नहीं हटना सीखा। आदिवासी उन्हें “धरती बाबा मिशनरी” कहते थे — क्योंकि वह सरकार के नहीं, धरती के बच्चों के साथ खड़े थे।

अंतिम समय

जब जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन(John Baptist Hoffmann) ने 1928 में जर्मनी में अपनी अंतिम साँस ली, तो वह मृत्यु किसी एक व्यक्ति की नहीं थी — वह एक युग का मौन अंत था। पर वास्तव में, वे कभी मरे नहीं। उनके जाने के बाद भी उनकी उपस्थिति आज तक झारखंड की हवाओं में, आदिवासी बच्चों की आँखों की चमक में, और खेतों की मिट्टी की गंध में जीवित है। उन्होंने जो लिखा, वह केवल किताबें नहीं थीं — वे एक पूरे समाज की आत्मा का दस्तावेज़ थीं। उन्होंने जो कानून बनवाया, वह सिर्फ कागज़ का टुकड़ा नहीं, बल्कि हज़ारों आदिवासी परिवारों के सपनों की सुरक्षा बन गया। और उन्होंने जो शिक्षा दी, वह केवल अक्षर नहीं, बल्कि स्वाभिमान और पहचान की मशाल थी, जो आज भी जल रही है। उनका जीवन एक मिशन था, और उनकी मृत्यु — एक विराम नहीं, बल्कि प्रेरणा की शुरुआत थी।

निष्कर्ष: हॉफमॅन – एक सच्चे सेवक की अमर मिसाल

John Baptist Hoffmann एक साधारण पादरी नहीं थे — वे उन विरले लोगों में से थे, जो जब किसी दुखी समाज में उतरते हैं, तो उसे केवल सहानुभूति नहीं देते, बल्कि न्याय और आत्मसम्मान की लौ जलाकर छोड़ते हैं। उनका मिशन सिर्फ बाइबल पढ़ाना नहीं था; उनका सच्चा धर्म था — धरती से जुड़े लोगों की ज़मीन को बचाना, उनकी संस्कृति को मिटने से रोकना, और उनकी आत्मा को फिर से जीने की हिम्मत देना।हॉफमॅन ने ना कोई तलवार उठाई, ना किसी सिंहासन की चाह रखी —फिर भी उन्होंने इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी —एक मौन, अदृश्य समाज को आवाज़ देने की।

जॉन बैपटिस्ट हॉफमॅन के जीवन को देखें, तो वो एक जीवित इंजील (गॉस्पेल) प्रतीत होते हैं। उनकी प्रत्येक सेवा, संघर्ष और चुप्पी में मसीह की आत्मा बोलती है। वे प्रचारक नहीं थे —वे जीते-जागते प्रचार थे। उनका जीवन इस बात का उत्तर है कि —”यीशु मसीह आज भी जीवित हैं — उन लोगों में, जो प्रेम को कर्म बना देते हैं।”

आज अगर झारखंड और उसके जंगलों में कोई आदिवासी गर्व से कहता है — “यह ज़मीन मेरी है, यह भाषा मेरी है, यह पहचान मेरी है” —तो उसकी जड़ों में हॉफमॅन जैसे महान आत्माओं की खामोश तपस्या है।वे चले गए, लेकिन उनके पदचिन्ह आज भी गांव की पगडंडियों, स्कूल के कक्षों, और क़ानून की किताबों में ज़िंदा हैं।

अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम हॉफमॅन की उस विरासत को केवल इतिहास में ना रहने दें —उसे ज़मीन पर, संवाद में, और संघर्ष में जीवित रखें।

आइए, हम भी किसी की मिटती हुई पहचान के लिए आवाज़ बनें।आइए, हम उस “सच्ची सेवा” को अपनाएं — जो जाति, धर्म या देश की सीमाओं से ऊपर उठकर इंसानियत के पक्ष में खड़ी होती है।

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