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Mother Teresa : प्रेम की जीवित मिसाल, यीशु की करुणा का मानवीय रूप

Mother Teresa biography in hindi : प्रेम की जीवित मिसाल, यीशु की करुणा का मानवीय रूप

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मदर टेरेसा(Mother Teresa)— एक ऐसा नाम जो विश्वभर में सेवा, करुणा और मानवता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन गरीबों, बीमारों और बेसहारा लोगों की सेवा में समर्पित कर दिया। इस ब्लॉग पोस्ट में हम विस्तार से जानेंगे मदर टेरेसा का जीवन परिचय, उनके कार्य, शिक्षाएँ और उनके द्वारा स्थापित मिशन की अद्वितीय प्रेरणा।

Mother Teresa Biography in Hindi

कुछ लोग इस संसार में आते हैं, और चले भी जाते हैं — परंतु उनका जीवन एक प्रकाश छोड़ जाता है, जो पीढ़ियों को राह दिखाता है। मदर टेरेसा(mother Teresa) का जीवन ऐसा ही था — एक स्त्री, जिसने गरीबी में पड़े इंसान में यीशु को देखा, और जीवन भर उनकी सेवा को अपना मिशन बना लिया।

वे सिर्फ नर्स नहीं थीं, सिर्फ धर्मगुरु नहीं थीं — वे थीं प्रेम, करुणा और सेवा की साक्षात प्रतिमा। उनका जीवन बताता है कि ईश्वर की महिमा चर्च की दीवारों में नहीं, बल्कि उन गलियों में है जहाँ भूखे सोते हैं।

बचपन और प्रारंभिक जीवन

Mother Teresa का जन्म 26 अगस्त 1910 को अग्नेस गोंझा बोयाजिजू के रूप में स्कोप्जे (अब उत्तर मैसेडोनिया में) में हुआ था। उनके माता-पिता अल्बेनियन ईसाई थे। टेरेसा का बचपन एक ऐसे घर में बीता जहाँ प्रार्थना, ईसाई संस्कार, और माता मरियम की आराधना का नियमित अभ्यास होता था। यह धार्मिक और सेवा-प्रधान वातावरण उनके चरित्र की नींव बना, जिसने उनके भीतर ईश्वर के प्रति समर्पण और मानवता के प्रति संवेदना को गहराई से स्थापित किया।

जब अग्नेस केवल आठ वर्ष की थीं, तभी उनके पिता निकोला का अचानक निधन हो गया। यह घटना उनके परिवार के लिए केवल एक आर्थिक संकट नहीं थी, बल्कि एक गहरा भावनात्मक आघात भी थी। पिता की मृत्यु के बाद उनकी माँ, द्राना, पर तीन बच्चों की जिम्मेदारी अकेले आ गई। कठिन परिस्थितियों के बावजूद द्राना ने हार नहीं मानी — उन्होंने ईश्वर में अपनी आस्था बनाए रखी और गरीबों की सेवा करना कभी नहीं छोड़ा।

अग्नेस अक्सर अपनी माँ को ज़रूरतमंदों को खाना परोसते हुए देखती थीं। माँ ने उन्हें सिखाया कि “बिना प्रेम के रोटी देना अपमान है, लेकिन प्रेम से बिना रोटी भी संतोष दे सकता है।” यह वाक्य अग्नेस के हृदय में गहराई से अंकित हो गया और उनके भावी जीवन का मार्गदर्शन बना।

मिशनरी जीवन का पहला सपना – 12 वर्ष की उम्र में

जब अग्नेस मात्र 12 वर्ष की थीं, तब उनके मन में पहली बार मिशनरी बनने की गहरी और स्थायी इच्छा जागी। यह जीवन-परिवर्तनकारी प्रेरणा उन्हें उन मिशनरियों की कहानियों से मिली, जो दूर देशों में, विशेष रूप से भारत में, गरीबों और पीड़ितों की सेवा कर रहे थे। उन्होंने अपने हृदय की इस पुकार को गंभीरता से लिया और वर्षों बाद लिखा, “मुझे लगा ईश्वर मुझे बुला रहे हैं — ताकि मैं अपना जीवन दूसरों की सेवा में अर्पित करूँ।” यह ईश्वर का आह्वान उनके जीवन की दिशा तय करने वाला पहला स्पष्ट संकेत बन गया।

स्कोप्जे से बाहर निकलना – परिवार से विदाई

जब अग्नेस 18 वर्ष की हुईं (सन् 1928), तो उन्होंने एक अत्यंत कठिन लेकिन निर्णायक निर्णय लिया — अपने परिवार, घर और मातृभूमि को छोड़कर मिशनरी जीवन को अपनाने का। उन्होंने आयरलैंड स्थित एक कैथोलिक संस्था “Loreto Sisters” में शामिल होने के लिए आवेदन दिया, जो भारत सहित विभिन्न देशों में मिशनरी कार्य करती थी। यह कदम उनके लिए केवल एक भौगोलिक यात्रा नहीं था, बल्कि एक आत्मिक यात्रा की शुरुआत थी, जिसमें वे अपना समस्त जीवन ईश्वर और मानवता की सेवा के लिए समर्पित करने जा रही थीं।

18 वर्ष की आयु में अग्नेस ने ‘सिस्टर्स ऑफ लोरेटो’ संस्था में शामिल होकर आयरलैंड में प्रशिक्षण लिया। वहीं से उन्हें भारत भेजा गया और 1929 में वे कोलकाता पहुँचीं, जहाँ उन्होंने लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में शिक्षिका के रूप में सेवा शुरू की।

भारत आगमन

18 वर्ष की आयु में अग्नेस ने ‘सिस्टर्स ऑफ लोरेटो’ संस्था में शामिल होकर आयरलैंड में प्रशिक्षण लिया। वहीं से उन्हें भारत भेजा गया और 1929 में वे कोलकाता पहुँचीं, जहाँ उन्होंने लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में शिक्षिका के रूप में सेवा शुरू की। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने देखा कि स्कूल के बाहर की दुनिया में लोग भूख से मर रहे हैं, बीमारी से तड़प रहे हैं, और कोई उनकी सुध लेने वाला नहीं।

उसी समय, जब वे ट्रेन से दार्जिलिंग जा रही थीं, उन्हें वह “कॉल विदिन ए कॉल” मिला — एक भीतरी आवाज़, एक दिव्य पुकार।

“मैंने यीशु की आवाज़ सुनी, जो मुझसे कह रहे थे — ‘मुझे इन गरीबों में सेवा चाहिए। जो भूखे हैं, जो नग्न हैं, जो बेसहारा हैं — मैं उनमें हूँ।’”

यही अनुभव उनके जीवन का मोड़ बन गया।

“मिशनरीज ऑफ चैरिटी” की स्थापना

1948 में उन्होंने लोरेटो कॉन्वेंट छोड़ दिया और एक नीली किनारी वाली सफेद साड़ी पहन ली — जो आगे चलकर उनकी पहचान बन गई।

1949 में उन्होंने कोलकाता की सड़कों पर गिरे बीमार लोगों की सेवा शुरू की। 1950 में उन्होंने आधिकारिक रूप से “Missionaries of Charity” नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य था,

“सबसे गरीब, सबसे तिरस्कृत, सबसे बीमार और सबसे अकेले व्यक्ति की सेवा करना, जैसे वह स्वयं यीशु हों।”

सेवा की विधि: प्रेम, करुणा और मसीह

Mother Teresa की सेवा अद्भुत थी, लेकिन उससे भी अधिक अद्भुत था उनका प्रेम करने का तरीका

निर्मल हृदय (Nirmal Hriday): मरणासन्न लोगों को गरिमा के साथ विदाई देनाकोलकाता की तंग गलियों में जब कोई बेसहारा, जख्मी या मृत्युशैया पर पड़ा होता था, तो मदर टेरेसा उसे ईश्वर का रूप मानकर उठा लाती थीं। उन्होंने “निर्मल हृदय” की स्थापना की — एक ऐसा स्थान, जहाँ मरते हुए इंसान को पहली बार जीवन का स्पर्श मिलता। वहाँ वे लोगों के घाव धोती थीं, उनकी आँखों में देखती थीं और कहती थीं — “तुम अकेले नहीं हो, यीशु तुम्हारे साथ हैं।” मृत्यु को अपवित्र नहीं, बल्कि गरिमा से भरी अंतिम यात्रा माना गया।

निर्मला शिशु भवन: अनाथ बच्चों का लालन-पालनजहाँ दुनिया ने इन नन्ही जानों को त्याग दिया, वहीं मदर टेरेसा ने उन्हें अपने आँचल में छिपा लिया। “निर्मला शिशु भवन” सिर्फ एक शरण स्थल नहीं था — वह एक माँ का हृदय था। वहाँ हर बच्चा, चाहे अनचाहा हो या बीमार, प्रेम में पला। उन्होंने हर शिशु में यीशु बालक को देखा, और उन्हें न केवल भोजन व दवाई दी, बल्कि एक परिवार, एक भविष्य और विश्वास भी दिया।

भूखों के लिए भोजनालय और प्राथमिक शिक्षा केंद्र : भूख केवल पेट की नहीं होती — आत्मा की भी होती है। मदर टेरेसा जानती थीं कि जब तक भूखे पेट को रोटी नहीं मिलेगी, आत्मा को परमेश्वर नहीं मिलेगा। उन्होंने सड़कों पर जाकर भूखों को खाना बाँटा, और बच्चों के लिए शिक्षा केंद्र खोले। एक रोटी, एक किताब और एक मुस्कान — यही उनके मिशन का सार था। उन्होंने हर निवाले में प्रेम और हर अक्षर में आशा भर दी।

कुष्ठ रोगियों के लिए चिकित्सा सेवा : जब लोग कुष्ठ रोगियों से घृणा करते थे, उन्हें छूना अपवित्र मानते थे, तब मदर टेरेसा ने उन्हें गले लगाया। उन्होंने कहा, “मैं इन्हें नहीं, यीशु को छू रही हूँ।” उनके लिए विशेष केंद्र बनाए गए जहाँ वे दवाई, देखभाल और सबसे बढ़कर, इंसान होने का एहसास पा सके। उन्होंने समाज के द्वारा ठुकराए गए लोगों को फिर से सम्मान, स्पर्श और प्रेम दिया।

आध्यात्मिकता: यीशु के साथ एकांत में

मदर टेरेसा(Mother Teresa) बाहरी जीवन जितना सेवा से भरा था, उनका भीतरी जीवन उतना ही गहन और संघर्षपूर्ण था।

  • उनके पत्रों से ज्ञात हुआ कि वे कई वर्षों तक आंतरिक सूखेपन और ईश्वर की चुप्पी का अनुभव करती थीं।
  • लेकिन फिर भी उन्होंने प्रार्थना नहीं छोड़ी, सेवा नहीं रोकी।
  • वे कहती थीं:

“भले ही मैं अंधेरे में चल रही हूँ, पर मैं जानती हूँ कि यीशु मेरे साथ हैं — और यही मेरी रौशनी है।”

उनकी प्रार्थना जीवन की शक्ति थी। रोज़ सुबह वे मसीह की पूजा करतीं, फिर सड़कों पर उतरतीं।

मदर टेरेसा की शिक्षाएँ

1. छोटे कार्य, बड़े प्रेम से करो

“We can do no great things, only small things with great love.”

वे कहती थीं कि ईश्वर हमसे बड़ा कार्य नहीं, बल्कि सच्चे प्रेम से किया गया कार्य चाहता है।

2. प्रेम का विपरीत घृणा नहीं, उदासीनता है

“The most terrible poverty is loneliness and the feeling of being unloved.”

वे जानती थीं कि आज का इंसान प्रेम के बिना मर रहा है, इसलिए वे हर किसी को अपनाना चाहती थीं।

3. क्षमा और करुणा का जीवन

वे कहती थीं:

“If you judge people, you have no time to love them.”

अंतरराष्ट्रीय पहचान और आलोचनाएँ

Mother Teresa का कार्य कोलकाता की गलियों से शुरू हुआ था, लेकिन वह धीरे-धीरे पूरे विश्व में फैल गया।
उनके मिशन की शाखाएँ आज 130 से अधिक देशों में हैं, जहाँ हज़ारों सिस्टर्स गरीबों की सेवा कर रही हैं।

सम्मान:

  • 1979 में उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार दिया गया।
  • 1980 में भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया।
  • 1997 में जब उनका निधन हुआ, तो उन्हें राजकीय सम्मान के साथ विदाई दी गई।

आलोचनाएँ भी आईं

कुछ लोगों ने कहा कि वे “गरीबी की पूजा” करती हैं। परंतु उन्होंने जवाब नहीं दिया। वे कहती थीं:

“मैं जवाब नहीं दूँगी, मैं बस और प्रेम करूँगी।”

संत घोषित (Canonization)

  • 2016 में पोप फ्रांसिस ने उन्हें “संत” घोषित किया।
  • अब उन्हें “Saint Teresa of Calcutta” के नाम से जाना जाता है।

निष्कर्ष: यीशु का प्रेम एक साड़ी में

मदर टेरेसा(Mother Teresa) का जीवन हमें यह सिखाता है कि यीशु का प्रेम शब्दों से नहीं, कर्म से प्रकट होता है।
उन्होंने मसीह को हर उस चेहरे में देखा जो भूखा था, जो गंदा था, जो त्यागा गया था।

उनकी नीली साड़ी, उनके जले हुए पैर, उनके काँपते हाथ — ये सब गवाही देते हैं कि ईश्वर आज भी इस धरती पर चलता है, अगर कोई उसके प्रेम को अपना जीवन बना ले।

“मैं सिर्फ एक पेंसिल हूँ, जो ईश्वर के हाथ में है। वही लिखता है।” — मदर टेरेसा

आज जब हम दुनिया की ठंडी होती संवेदनाओं से जूझ रहे हैं, तो मदर टेरेसा हमें याद दिलाती हैं:

  • प्रेम करना एक विशेष योग्यता नहीं, बल्कि हर दिन का छोटा सा निर्णय है।
  • ईश्वर की आराधना सिर्फ प्रार्थना में नहीं, बल्कि गरीब की सेवा में है।
  • अगर तुम किसी को अपनाते हो, तो तुम स्वयं यीशु को अपनाते हो।

मदर टेरेसा का जीवन सिर्फ एक कहानी नहीं, वह एक जीवित साक्षी है — उस प्रेम की जो यीशु ने हमें सिखाया।

अगर इस लेख ने आपके हृदय को छुआ हो, तो इसे एक प्रार्थना की तरह आगे बढ़ाइए — अपने मित्रों, परिवार और समाज तक, शायद आपकी एक “शेयर” किसी टूटे हुए मन को प्रेम, आशा और विश्वास दे जाए। इस प्रेरणा को बाँटिए, क्योंकि प्रेम जब बाँटा जाता है, तब वह यीशु के करीब ले जाता है।

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