Praise the Lord. परमेश्वर ने मरियम को क्यों चुना : जाने उद्धार की योजना में मरियम का किरदार | Why did God choose Mary ln Hindi | Mary in God’s Plan | मरियम की कहानी | Mary role in salvation
परमेश्वर ने मरियम को क्यों चुना : जाने उद्धार की योजना में मरियम का किरदार
क्रिसमस की कहानी सिर्फ यीशु के जन्म की नहीं, बल्कि परमेश्वर की प्रेम योजना की कहानी है। और उस योजना का आरंभ एक युवती के साधारण उत्तर से हुआ, “हाँ।”
यह “हाँ” किसी महल की रानी का नहीं, बल्कि एक छोटे से गाँव नासरत की एक साधारण कन्या का था, जिसका नाम था मरियम (Mary)।
मरीयम – एक साधारण नाम, पर उसके पीछे एक ऐसी आत्मा है जिसने इतिहास और आस्था के पन्नों पर अमिट छाप छोड़ी। उसकी कथाएँ पाठ्यक्रमों में नहीं, बल्कि उन हृदयों में बसती हैं जो नम्रता, भरोसा और असली साहस की तलाश में हैं। वह कोई राजकुमारी नहीं थी, न ही किसी बड़े घर की अधिकारी—पर उसकी विनम्रता ने स्वर्ग के दूतों को झुकने पर मजबूर कर दिया।
इस लेख में हम परमेश्वर ने मरियम को क्यों चुना, उसका योगदान और उसके जीवन से मिलने वाली सीखों का गहन और भावनात्मक विश्लेषण करेंगे। हर हिस्से का उद्देश्य यही है कि पढ़ने वालों के भीतर मरीयम की सादगी और उसकी निर्भीक भलाई का एक ज्वलंत अनुभव उठे — ऐसा कि आँखें नम हो जाएँ और हृदय प्रेरित हो उठे।
मरियम – एक साधारण कन्या, असाधारण बुलावा
मरियम गलील प्रांत के नासरत गाँव की रहने वाली थी। यह छोटा-सा गाँव गरीब, अनजान और रोमन शासन के अधीन था। एक ऐसी जगह जिसका सामाजिक या धार्मिक महत्त्व लगभग नगण्य था। लोग कहते थे,
“क्या नासरत से कोई भला हो सकता है?” (यूहन्ना 1:46)
पर परमेश्वर का स्वभाव ही यही है, वह महान कार्यों के लिए उन लोगों को चुनता है जो दुनिया की नज़र में साधारण हैं।
मरियम एक धार्मिक, पवित्र और परमेश्वर-भक्त परिवार से थी। उसकी परवरिश यहूदी परंपरा में हुई थी, जहाँ हर बच्चे को तोराह (धर्मशास्त्र) सिखाया जाता था। वह वचन से परिचित थी, और जानती थी कि एक दिन मसीहा आएगा जो इस्राएल को उद्धार देगा।
पर उसने कभी नहीं सोचा होगा कि वह स्वयं उस दिव्य योजना का हिस्सा बनेगी। और फिर, जब स्वर्गदूत गब्रिएल उसके सामने आया, तो उसकी साधारण ज़िंदगी एक दिव्य बुलावे में बदल गई।
“मत डर, मरियम, तूने परमेश्वर का अनुग्रह पाया है।” (लूका 1:30)
यही वाक्य उसकी आत्मिक यात्रा की शुरुआत थी। उस क्षण में उसकी विनम्रता, उसका विश्वास और उसका समर्पण मानवता की मुक्ति की राह खोलने वाला बना।
उसकी सादगी में वह बात थी जो स्वर्ग को छू जाए। और परमेश्वर को उसी सादगी में अपने कार्य के लिए सबसे सुंदर पात्र मिला।
परमेश्वर ने मरियम को क्यों चुना – एक रहस्यपूर्ण बुलाहट
प्रश्न उठता है, इतने वर्षों के इतिहास के बाद, इतने लोगों में से परमेश्वर ने मरियम को क्यों चुना? इसका कोई सरल मानवीय कारण नहीं था, न धन, न उच्च वंश, न लोकप्रियता। बल्कि उसका चुना जाना एक आध्यात्मिक कारण था: उसकी हृदय की उपलब्धता। यानी परमेश्वर किसी व्यक्ति को उसके बाहरी रूप, पद या प्रभाव से नहीं चुनता, बल्कि उसके हृदय की गहराई को देखकर चुनता है।
मरियम का हृदय एक निर्मल दर्पण था, जहाँ परमेश्वर की इच्छा साफ दिखाई देती थी। उसकी विनम्रता इतनी गहरी थी कि जब स्वर्गदूत गब्रिएल उसके पास आया, तो वह भयभीत तो हुई, पर अचंभित भी, क्योंकि उसने कभी सोचा भी नहीं था कि परमेश्वर उसके जीवन में इतना महान कार्य करेगा।
“जय हो, अनुग्रह से परिपूर्ण, प्रभु तेरे साथ है।” (लूका 1:28)
ये शब्द साधारण नहीं थे; यह परमेश्वर की ओर से एक घोषणा थी कि, अनुग्रह अब मानवता में उतरने वाला है,
और मरियम उसका माध्यम बनेगी।
मरियम इसलिए चुनी गई क्योंकि उसके “हाँ” के पीछे कोई स्वार्थ नहीं था और न कोई घमंड। वह डर सकती थी, समाज की निंदा से, यूसुफ़ की प्रतिक्रिया से, यहाँ तक कि अपने जीवन के खतरे से, क्योंकि उस समय विवाह से पहले गर्भवती होना पत्थर मारकर मार दिए जाने के समान अपराध माना जाता था।
फिर भी उसने कहा: “मैं प्रभु की दासी हूँ; जैसा तूने कहा है, वैसा ही मुझ में हो।” इस एक वाक्य ने स्वर्ग और पृथ्वी के बीच की दूरी मिटा दी।
मरियम में तीन बातें थीं जो उसे “चुनी हुई पात्र” बनाती हैं —
1. मरियम की विनम्रता – स्वयं को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना
विनम्रता (Humility) का अर्थ सिर्फ नम्र व्यवहार नहीं है; यह आत्मा की वह अवस्था है जब मनुष्य यह स्वीकार करता है कि, “मैं नहीं, परमेश्वर ही सब कुछ है।” मरियम ने यही किया। उसने यह नहीं कहा, “मैं योग्य नहीं,” बल्कि कहा, “मैं उसकी दासी हूँ।” यह शब्द केवल विनम्रता नहीं, बल्कि पूर्ण आत्मसमर्पण का प्रतीक हैं।
वह जानती थी कि परमेश्वर का बुलावा आसान नहीं है, वह एक अविवाहित कन्या थी; गर्भवती होना सामाजिक रूप से शर्म और अस्वीकृति का कारण बन सकता था। पर उसने डर के बजाय भरोसा चुना। “क्योंकि उसने अपनी दासी की दीनता पर दृष्टि की है।” (लूका 1:48)
यही मरियम की सच्ची पहचान थी, उसका मन छोटा था, पर उसमें परमेश्वर की योजना के लिए विशाल स्थान था।
2. आज्ञाकारिता – परिस्थितियों के बावजूद परमेश्वर की इच्छा मानना
मरियम का “हाँ” एक आज्ञाकारिता का कार्य था। उसने परमेश्वर के बुलावे को मानने से पहले यह नहीं पूछा, “कब?”, “कैसे?”, या “क्यों?” उसने बस कहा, “जैसा तू ने कहा है, वैसा ही मुझ में हो।”
यह आज्ञाकारिता उसकी आस्था की पराकाष्ठा थी। क्योंकि उसके “हाँ” कहने के बाद उसका जीवन सुरक्षित नहीं रहा। उसे समाज से तिरस्कार मिल सकता था, यूसुफ़ उस पर शक कर सकता था, पर उसने किसी भय को अपनी आज्ञाकारिता के बीच नहीं आने दिया।
और यही कारण है कि उसका “हाँ” संसार के उद्धार का माध्यम बना। “जो कुछ वह तुमसे कहे, वही करना।” (यूहन्ना 2:5) यह बाद में मरियम ने काना के विवाह में कहा, जब उसने यीशु को चमत्कार करने को प्रेरित किया। उसकी आज्ञाकारिता अब दूसरों को भी उसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर रही थी।
3. विश्वास – जब रास्ता दिखे नहीं, तब भी चलना
मरियम का विश्वास सिर्फ शब्दों में नहीं था, वह हर परिस्थिति में प्रकट हुआ। सोचिए, जब उसने यीशु को जन्म दिया, वह किसी राजमहल में नहीं, बल्कि एक गोशाला में हुआ। फिर भी उसने शिकायत नहीं की।
जब हेरोदेस ने बालकों को मारने का आदेश दिया, वह यूसुफ़ के साथ मिस्र भागी, अनजान देश, अनजान रास्ता। फिर भी वह शांत रही, क्योंकि उसे भरोसा था कि परमेश्वर मार्ग बनाएगा।
और जब क्रूस पर उसने अपने पुत्र को पीड़ा में देखा, तो भी वह अपने विश्वास में स्थिर रही। वह चुपचाप क्रूस के नीचे खड़ी रही,
क्योंकि उसने समझ लिया था, “जो परमेश्वर की योजना है, वह अंत नहीं, बल्कि नया आरंभ है।”
मरियम का ‘हाँ’ – उद्धार की योजना का द्वार
मरियम का “हाँ” इतिहास की सबसे पवित्र स्वीकृति है। यह केवल एक शब्द नहीं था; यह समर्पण की पराकाष्ठा थी। उसके “हाँ” के साथ ही परमेश्वर का वचन उसके गर्भ में उतर आया, “वचन देहधारी हुआ और हमारे बीच में रहा।” (यूहन्ना 1:14)
यह वह क्षण था जब परमेश्वर ने मनुष्य का रूप धारण किया। और यह किसी बलपूर्वक नहीं, बल्कि एक विनम्र स्त्री की सहमति के कारण हुआ।
मरियम की इस “हाँ” ने हव्वा की “ना” को उलट दिया। हव्वा ने परमेश्वर की आज्ञा न मानी और पाप आया, पर मरियम ने आज्ञा मानी और उद्धार आया। इसलिए उसे अक्सर “नई हव्वा” कहा जाता है, जिसके माध्यम से नया जीवन प्रारंभ हुआ।
मरियम का मातृत्व – जब अनंत ने गोद में जगह ली
जब मरियम ने यीशु को जन्म दिया, तो उसने संसार के उद्धारकर्ता को अपनी गोद में लिया। सोचिए, वह स्त्री जिसने सर्वशक्तिमान को अपने हाथों में थामा!
वह दृश्य जितना कोमल था, उतना ही दैवीय भी। गोशाला में ठंडी रात, पशुओं की साँसे, और चरनी में रखा वह शिशु, यह कोई शाही महल नहीं था, पर उस क्षण में पूरा स्वर्ग झुक गया था।
स्वर्गदूतों ने गाया: “परमेश्वर की महिमा आकाश में, और पृथ्वी पर उन मनुष्यों में शांति जिनसे वह प्रसन्न है।” (लूका 2:14)
मरियम का हृदय उस क्षण में आनंद से भर गया, पर साथ ही उसने एक भविष्यवाणी भी सुनी, “तेरी आत्मा में तलवार-सी चुभेगी।” (लूका 2:35)
वह जानती थी — यह बालक केवल उसका नहीं, संपूर्ण मानवता का पुत्र है। वह उसे जन्म देने आई थी ताकि वह बलिदान बन सके।
उद्धार की योजना में मरियम का योगदान
मरियम का योगदान किसी एक घटना में सीमित नहीं है; वह सम्पूर्ण उद्धार योजना की आत्मा है। निचे दिए गए 3 पॉइंट्स से समझे,
1. मरियम का मौन विश्वास – हर चरण में उपस्थित
मरियम का जीवन किसी मंच का नहीं था, बल्कि मौन उपस्थिति का जीवन था। वह जहाँ भी थी, वहाँ परमेश्वर की इच्छा की गंध थी। जब यीशु बारह वर्ष का था और मंदिर में ठहर गया, मरियम ने कुछ नहीं कहा, बस “इन सब बातों को अपने मन में रखकर सोचती रही।” (लूका 2:51)
जब काना के विवाह में दाखरस समाप्त हुआ, तो मरियम ने केवल एक वाक्य कहा, “जो कुछ वह तुमसे कहे, वही करना।” (यूहन्ना 2:5)
यही है विश्वास का सार, ईश्वर के वचन पर भरोसा रखना, भले ही वह समझ में न आए। मरियम ने यीशु के हर चमत्कार के पीछे प्रार्थना में साथ दिया, और हर संघर्ष में मौन सहमति दी।
उसका विश्वास दिखावटी नहीं, बल्कि गहराई में जड़ें जमाए हुए पेड़ की तरह स्थिर था।
2. क्रूस के नीचे – मातृत्व का चरम बलिदान
फिर वह दिन आया जब उद्धार की योजना अपने शिखर पर पहुँची, क्रूस पर। जहाँ मनुष्य का पाप की कीमत चुकाई जा रही थी। और वहाँ भी मरियम थी। जब शिष्य भाग गए, जब मित्र छूट गए, वह खड़ी रही — अपने पुत्र के पास, लहूलुहान, पर दृढ़।
“और यीशु की माता क्रूस के पास खड़ी थी।” (यूहन्ना 19:25)
क्या किसी माँ के लिए इससे बड़ा दर्द हो सकता है? पर मरियम ने इस पीड़ा में भी ईश्वर की योजना को समझा। वह जानती थी, उसका पुत्र मर नहीं रहा, वह संसार को जीवन दे रहा है।
जब यीशु ने कहा —
“स्त्री, देख, यह तेरा पुत्र है… और शिष्य से कहा, देख, यह तेरी माता है।” (यूहन्ना 19:26–27)
वह केवल एक माँ नहीं रही, बल्कि पूरी मानवता की आत्मिक माँ बन गई। उस क्षण में उसने अपने मातृत्व को सार्वभौमिक बना दिया।
3. पुनरुत्थान और पेंटेकोस्ट – मरियम की आस्था की पूर्णता
यीशु के पुनरुत्थान के बाद, मरियम चुप रही, पर उसका विश्वास बोलता रहा। वह प्रार्थना में स्थिर रही, जब तक पवित्र आत्मा नहीं उतरा।
“ये सब स्त्रियों सहित और यीशु की माता मरियम के साथ प्रार्थना में लगे रहे।” (प्रेरितों के काम 1:14)
यह वही मरियम थी जिसने पवित्र आत्मा के सामर्थ से गर्भ धारण किया था, और अब वही आत्मा कलीसिया में उतरने वाला था।
मरियम की उपस्थिति ने उस आरंभिक समुदाय को एकता दी, आशा दी, और स्थिरता दी। वह कलीसिया की मौन प्रार्थना बन गई, जो स्वर्ग और पृथ्वी के बीच एक पुल की तरह थी।
मरियम के योगदान का सार ये निकला की,
- उसने आज्ञाकारिता से परमेश्वर की इच्छा को स्वीकार किया।
- उसने विश्वास से असंभव को संभव होते देखा।
- उसने मातृत्व से परमेश्वर के पुत्र की देखभाल की।
- उसने दृढ़ता से क्रूस की पीड़ा को सहा।
- उसने प्रार्थना से कलीसिया के जन्म में भाग लिया।
उसका जीवन एक ऐसी गवाही है, जो कहती है, परमेश्वर विनम्रों के माध्यम से महान कार्य करता है।
हमारे लिए सीख – मरियम की तरह ‘हाँ’ कहना
मरियम की कहानी केवल अतीत की नहीं, बल्कि आज के हर विश्वासी की कहानी है। कभी न कभी परमेश्वर हमें भी बुलाता है, किसी सेवा के लिए, किसी त्याग के लिए, किसी विश्वास के कदम के लिए। और उस समय वह हमारे उत्तर की प्रतीक्षा करता है।
मरियम की तरह यदि हम कहें, “प्रभु, जैसा तू चाहे, वैसा ही हो,” तो हमारा जीवन भी परमेश्वर की योजना का अंग बन सकता है। वह हमें दिखाती है कि आज्ञाकारिता कमजोरी नहीं, सामर्थ है। वह सिखाती है कि नम्रता में ही महिमा छिपी है।
निष्कर्ष: परमेश्वर ने मरियम को क्यों चुना
मरियम ने संसार के लिए सबसे बड़ा उपहार दिया, उसका “हाँ” ही यीशु मसीह का आगमन बना। वह मानव इतिहास की सबसे पवित्र आवाज़ थी — जो कहती है, “हे प्रभु, जैसा तू कहे वैसा ही मुझ में हो।”
परमेश्वर ने उसे इसलिए चुना क्योंकि वह तैयार थी, न केवल स्वीकार करने को, बल्कि समर्पण करने को। मरियम का चयन हमें याद दिलाता है कि परमेश्वर का चुनाव योग्यता से नहीं, बल्कि विनम्रता से होता है। वह ऐसे हृदयों की तलाश में है जो सुनने, मानने और आज्ञा पालन करने को तैयार हों।
और शायद आज वह हमसे भी पूछ रहा है, “क्या तू भी मेरे बुलावे को ‘हाँ’ में बदलने के लिए तैयार है?”
यदि हाँ, तो तेरे भीतर भी कोई परमेश्वर की योजना जन्म ले सकती है। क्योंकि हर “हाँ” से एक नया उद्धार प्रारंभ होता है।
तो जब हम क्रिसमस मनाते हैं, तो हमें केवल यीशु की कहानी नहीं, बल्कि उस स्त्री की आस्था को भी याद रखना चाहिए जिसकी “हाँ” ने हमें उद्धार दिलाया।
“मेरी आत्मा प्रभु की बड़ाई करती है, और मेरी आत्मा मेरे उद्धारकर्ता परमेश्वर में मगन है।” (लूका 1:46–47)
मरियम का यह गीत केवल उसकी स्तुति नहीं, यह संपूर्ण मानवता का गीत है, क्योंकि उसकी विनम्रता से हम सबको उद्धार मिला।
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